इक ख़ामोशी सी पसरी है, दूर तलक सन्नाटा है
मैं इक अनजानी सी नींद ओढ़े, हर कोई मुझे जगाता है।
हर कोई मुझे जगाता है, बिन बात के हर बात में मुझे बुलाता है
वो जो भूला बैठा था मुझको,मेरे ही किस्से सबको अब सुनाता है।
वो किस्से सबको अब सुनाता है, शायद मन ही मन पछताता है
मेरी लंबी इस ज़िंदगी का, दो शब्दों में सारांश वो बताता है।
दो शब्दों का वो सारांश, मेरे दिल को अंदर से छू जाता है,
जी करता है रो लूं उठकर, पर ये जिस्म उतना ही जकड़ा जाता है।
जिस्म जकड़ा जाता है, रूह का साथ ख़ुद ब ख़ुद धुंधलाता है
कि अब सफर जिस्म का ख़त्म होकर ,बरज़ख़ ढूंढा जाता है।
बरज़ख़ को तो मिलना है, पर मेरा वक्त यही थम जाता है
ये जो घेरे बैठें हैं मुझको, हर कोई तारीफें क्यों बतलाता है।
अनसुनी सी तारीफें लगती, ये दस्तूर समझ नहीं आता है
ख़्याल आया सबसे पूछूं , पर अब यूं सोना ही मुझको भाता है।
इक ख़ामोशी सी पसरी है, दूर तलक सन्नाटा है
मैं इक अनजानी सी नींद ओढ़े, हर कोई मुझे जगाता है।
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बरज़ख़- जन्नत ( स्वर्ग ) और दोजख ( नर्क ) से पहले का स्थान
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