कभी साथ चलो तो पता चले कि चलना कितना मुश्किल है,
उन भीड़ भरी या सन्नाटी सड़कों पर निकलना कितना मुश्किल है।
वो जगती रातें और तन्हा सांसे जब कदम साथ बढ़ाती हैं,
कुछ अनचाहा होने के डर से खुद ब खुद रुक जाती है।
दिन में जब सूरज को साथ लेकर भी चलती हूं,
कुछ घूरती नज़रों के सामने से जब निकलती हूं,
पेड़ के नीचे या गाड़ी में बैठे वो लोग तो वहीं रह जाते हैं,
पर आगे ऐसी नज़र ना होगी खुद को ये समझाना कितना मुश्किल है।
चलो एक दिन के लिए तुम बन जाओ मैं और मैं तुम जैसा बन जाती हूं,
शायद तब पता चले कि ये बातें तुमको कैसे सुकून दिलाती हैं,
जब चौराहों पर खड़े होकर कुछ दूर पीछा तुम्हारा करूंगी,
तुम असहाय सा महसूस करोगे और मैं कुछ पल थोड़ा हंसूंगी।
क्या पता उस सुख का आनंद तब मुझे मिले जो तुमको अक्सर मिलता है,
और तुमको तब पता चले कि लड़की को कब लड़की होना खलता है।
ख़ैर, ये तो फितरत है, समझती हूं तुम्हारे लिए बदल पाना कितना मुश्किल है,
पर हां, कभी मेरे साथ चलो तो पता चले की चलना कितना मुश्किल है।।
Friday, 13 July 2018
चलना कितना मुश्किल है
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